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दसवाँ अध्याय




दसवाँ अध्याय

सातवें अध्यााय में जिस ज्ञानविज्ञान का आरंभ हुआ था वही नौवें के अंत तक चलता आया है। मगर यह निरूपण केवल आंशिक और संकुचित रूप में ही हुआ है, यह हमने पहले ही बता दिया है। इसका कारण भी समझा दिया है। ठीक ही है, इतने गहन और गूढ़ विषय का, जिसके बारे में कृष्ण ने कह दिया है कि यह बात इस लंबी मुद्दत में लुप्त हो गई है, 'योगो नष्ट: परंतप:' (4। 2), एकाएक विस्तृत निरूपण करना अर्जुन को और दूसरों को भी चकाचौंध में डालना हो जाता। फलत: इसका बखूबी समझना और भी असंभव बन जाता। क्योंकि लोग चटपट कह बैठते कि यों ही जानें क्या-क्या अंट-संट बके जाते हैं। जो अक्ल में समाता ही नहीं। इतना ही नहीं, तब तो इससे लोगों को एक प्रकार की अश्रद्धा ही हो जाती। इसीलिए धीरे-धीरे प्रवेश करते-करते कृष्ण ने अर्जुन के मन में चसका और लगन पैदा करने के साथ ही इस गहन विषय में उसकी बुद्धि के प्रवेश का रास्ता भी साफ कर दिया। अर्जुन को अब इसमें वह कठिनाई नहीं प्रतीत होती थी जो पहले दीखती थी। उसका मन भी इधर झुकता नजर आया। यह बात दसवें अध्या य के पहले ही श्लोक के 'प्रीयमाणाय' शब्द से प्रकट हो भी जाती है। इसीलिए उसी श्लोक में कृष्ण ने साफ ही कह दिया कि अभी और भी मेरी मजेदार और महत्त्वपूर्ण बातें सुनो "भू य एव महाबाहो शृणु मे परमं वच:"।

एक बात और भी है। कहा जा सकता है कि भगवान से इस जगत के बनने की बात तो लुप्त हुई नहीं है। जिस योग के लोप होने की बात चौथे अध्या य में कही गई है उसके भीतर तो इसके सिवाय दूसरी अनेक बातें भी हैं और उन्हीं का विलोप हो जाने से वहाँ मतलब हो सकता है। फिर भी यह तो ठीक ही है कि जिस चीज को भगवान खुद कहेंगे वह जितनी खूबी तथा आसानी से जानी जा सकेगी वैसी दूसरों की जबानी हर्गिज नहीं। आखिर इस चीज के करने वाले, इस लीला के फैलाने वाले और मूल कारण तो वही हैं न? यह नाटक तो भगवान का ही फैलाया हुआ है न? इसीलिए इसका कच्चा चिट्ठा, इसकी हकीकत जितनी वह जानेंगे उतनी और कोई क्या जानेगा? क्योंकि वह तो उन्हीं से या दूसरों से ही सीख-सुन के जानेगा और कहेगा न? फिर उसके कहने में वह मजा कैसे आएगा जो ठेठ भगवान के कहने में? दूसरे ऋषि-मुनि या उपदेशक तो उसके ही बनाए हुए हैं न? फिर यह कैसे आशा की जाए कि वे रत्तीं-रत्तीक बातें बखूबी जान सकेंगे? और जो भी जानें वे भी उस तरह कैसे समझा सकेंगे? ऐसे तो विरले ही हो सकते हैं जिन्होंने आत्मज्ञान के द्वारा इन सभी चीजों का साक्षात्कार कर लिया हो। क्योंकि 'मनुष्याणां सहस्रेषु' (7 ।3) की भी बात तो आखिर इसी सिलसिले में कही गई है। और अगर किसी बिरले माई के लाल ने ऐसी योग्यता भी प्राप्त की तो भी उसका मिलना आसान तो नहीं है। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि भगवान स्वयमेव सारी दास्तान सुनाएँ। जब उन्हीं की कृपा से विवेक आदि सद्गुण औरों को मिलते हैं, जिससे वे ये बातें जान के दूसरों को भी जनाएँ; मन, इंद्रिय आदि को काबू में करके पहले इस विषय को अच्छी तरह स्वयं देख लें; अनंतर दयार्द्र हो के अन्यों को भी बताएँ, तो क्यों न भगवान से ही यह चीज जानी जाए? दसवें अध्याहय के कुल 42 श्लोकों में जो शुरू के पूरे अठारह श्लोक इन्हीं बातों के कहने में खत्म हुए हैं उसका यही रहस्य है।

उनमें भी पहले पूरे ग्यारह श्लोकों में स्वयं कृष्ण ने इस विषय की गहनता के खयाल से ही सब कुछ कहा है और बताया है कि इसे बिरले ही जानते हैं, सो भी मुझ भगवान की ही अनुकंपा से। तभी तो जो अर्जुन चुप बैठा था उसे एकाएक खयाल हो आया है कि ओहो, जब ऐसी बात है तब तो मुझे खुद कृष्ण से ही अनुरोध करना चाहिए कि वे स्वयमेव ये बातें बताएँ और कहें किस प्रकार उनने यह विश्व का नाटक फैलाया है। कहीं ऐसा न हो कि मेरी इस चुप्पी का कुछ और भी अर्थ लगा के या तो इसे कतई छोड़ ही दें, या अगर सुनाएँ भी तो उस विस्तार के साथ नहीं जिसकी जरूरत है और उस मनोयोग से भी नहीं जिसके करते विषय में जीवन आ जाता है। इतना ही नहीं। आगे तो कृष्ण को ही इस 'कह सुनाऊँ' के बाद ही 'कर दिखाऊँ' भी करना था। तभी तो दिल में यह बात जा के बैठ सकती थी। इसलिए जब खुद ही वह कहेंगे तो दिखाने या प्रयोग करने में भी न तो हिचकेंगे और न आधे मन से उसे करेंगे ही। इसीलिए उसने जोर दिया कि नहीं-नहीं, महाराज, आप ही कृपा कीजिए और सुनाइए। उसके भीतर विषाद के करते जो गड़बड़ पैदा हो गई थी उसी के चलते जानें कितनी ही बातें भूल ही गई थीं। उन्हीं में कुछ एकाएक अब याद भी हो आईं। इसीलिए तो जहाँ पहले उसने कृष्ण के बारे में कहा था कि आप तो अभी पैदा हुए हैं; फिर यह कैसे मानूँ कि सृष्टि के आदि में आपने विवस्वान से यही बातें कही थीं; तहाँ अब उसने यह भी कह दिया कि हाँ, हाँ, भगवन, आपके बारे में बड़े-बड़े महर्षियों से भी सुना था वही, जो आप खुद कह रहे हैं! क्षमा करें, मेरी बुद्धि ही जानें क्या हो गई थी कि कुछ याद ही नहीं पड़ता था! आपकी महिमा तो अपरंपार है, इसमें कोई शक नहीं है। यह भी नहीं कि यह आपकी प्रशंसामात्र है। यह तो वस्तुस्थिति है। इसलिए अब तो आपको अपनी लीला सुनानी ही होगी, चाहे जो कुछ हो जाए।

इसके बाद तो भगवान के लिए कोई चारा ही न था। फलत: फौरन ही 19वें श्लोक से ही उन्हें शुरू कर देना ही पड़ा। पूरे 24 श्लोकों में इसे पूरा करके भी अंत में उनने कह दिया कि इस पँवारे का कहीं अंत थोड़े ही है; मैंने तो यह नमूने के तौर पर ही कुछ कह दिया है, 'नांतोऽस्ति मम', 'एषत्द्देशत: प्रोक्त:' आदि। इसीलिए जो लोग शुरू के 18 श्लोकों को पढ़ के या तो ऊब जाते, या खयाल करते हैं कि भगवान की विभूति या प्रपंच-लीला के निरूपण वाले इस अध्या य में प्राय: आधे श्लोक बेकार ही क्यों दूसरी बातों में लगा दिए गए हैं, उन्हें अब पता लग गया होगा कि इस बात की जरूरत थी। असल में यों तो इस विषय की अहमियत को जनसाधारण समझी नहीं सकते। इतनी भूमिका के बाद भी उनके दिमाग में यह बाद शायद ही जमे। उनके लिए तो यह दूसरी दुनिया की विदेशी जैसी चीज ही है। फिर मन लगे तो कैसे लगे? इसीलिए इतनी भूमिका भी कुछ विशेष काम उनके दिमाग पर कर पाती नहीं। मगर अर्जुन के बारे में यह बात न थी। वह तो बहुत कुछ ऊँचा उठ चुका था। इसीलिए इस भूमिका ने उसे न सिर्फ प्रोत्साहित किया; बल्कि उसमें चसका भी पैदा कर दिया। फलत: वह इसमें लिपट ही तो पड़ा। नतीजा यह हुआ कि दसवें के शेष और पूरे ग्यारहवें अध्यारय में उसने कृष्ण से 'कह सुनाऊँ' तथा 'कर दिखाऊँ' दोनों करवा के ही छोड़ा।

एक बात यहीं पर और भी जान के आगे बढ़ने में अच्छा होगा। 'एतां विभूतिं योगं च' (10। 7) में तथा 'विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च'। (10। 18) में एक ही साथ योग और विभूति शब्द आए हैं। इसके सिवाय सोलहवें में भी कई बार विभूति शब्द आया है। इन दोनों में विभूति का अर्थ तो 'बहुत रूप हो जाना या बन जाना' साफ ही है। जो कुछ कहा गया है उससे भी साफ हो जाता है। मगर उसी के साथ जो योग है उसका स्पष्टीकरण इस अध्याुय में कहीं नहीं मिलता। अंत के 40-41 श्लोकों में भी कई बार विभूति शब्द ही आया है, न कि योग। इससे यही मालूम होता है कि इस अध्या4य में विभूतियों का ही वर्णन है, विस्तार है। इसीलिए तो इसे विभूतियोग नामक अध्यायय कहते हैं; जैसा कि औरों को ज्ञान-विज्ञानयोग आदि नाम दिए गए हैं।

तब प्रश्न होता है कि यहाँ योग का अर्थ आखिर है क्या? योग शब्द जिन अर्थों में गीता में बार-बार आया है वह तो इसका अर्थ है नहीं। इसके तो ज्यादे से ज्यादा चमत्कार, करिश्मा, ऐश्वर्य आदि ही अर्थ किए जा सकते हैं। मगर तब क्या विभूति से काम नहीं चल जाता कि इसकी भी जरूरत हुई? यह प्रश्न उठता है। आखिर विभूति भी तो चमत्कार या करिश्मा ही है। जादूगर जब नई-नई चीजें बताता है तो उसे करिश्मा ही तो कहते हैं।

असल में दसवें और ग्यारहवें अध्यातयों में यों ऊपर से देखने से दो जुदी बातों का वर्णन मालूम होने पर भी इनके विषय को एक ही मान के उसे दो भागों में केवल बाँटा गया है। इनमें पहला है 'कह सुनाऊँ' वाला और दूसरा 'कर दिखाऊँ' का। दोनों को एक ही समझने के लिए ही यहीं पर एक ही साथ विभूति और योग शब्द शुरू में ही कहे गए हैं। यही कारण है कि विभूति के खत्म होते ही, 'कह सुनाऊँ' के पूरा होते ही अर्जुन ने ग्यारहवें में चट-पट 'कर दिखाऊँ' के बारे में प्रश्न कर दिया है और जरा भी देर न की है। कृष्ण के भी 'कर दिखाने' का उसके नौवें श्लोक से शुरू करने के ठीक पहले आठवें के अंत में 'दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्' में योग आ गया है। जो कुछ दिखाया गया है उसे ही वहाँ ईश्वरीय योग कहा है। इससे स्पष्ट है कि विश्व रूप का दिखाना ही योग है। दिखाने के भीतर ही देखना भी आ जाता है। इसीलिए विश्वरूप दर्शन में दर्शन का अर्थ देखना-दिखाना दोनों ही है। अतएव दसवें के 'न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं' (10। 2) में जो प्रभव शब्द है उसका अर्थ प्रभुता या ऐश्वर्य करके उसके भीतर विभूति और योग दोनों को ही समझना होगा। कृष्ण के कहने का अभिप्राय यही है कि मैं किस प्रकार इस विश्वप्रपंच को बनाता और फैलाता हूँ इसे देवता, महर्षि आदि कोई भी ठीक-ठीक नहीं जानते, नहीं जान सकते। जानें भी कैसे? यदि उस समय होते तब न? इन्हें तो मैंने ही उसी सिलसिले में पीछे से बताया है। इस प्रभव शब्द का अर्थ उत्पत्ति या उत्पत्तिस्थान आदि करना उचित नहीं है। उसमें वह मजा नहीं आता जो हमारे बताए अर्थ में है।

श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वच:।

य त्ते ऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥ 1 ॥

श्रीभगवान बोले - हे महाबाहो, मेरी और भी (एक) बड़ी बात सुनो, जिसे मैं तुम्हारे हित के खयाल से तुम्हें (केवल) इसीलिए कहूँगा कि तुम्हें मजा आ रहा है। 1।

न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय:।

अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:॥ 2 ॥

मैं विश्वप्रपंच कैसे फैलाता हूँ इसे न तो देवगण जानते हैं और न महर्षि लोग ही। क्योंकि मैं ही तो सभी देवताओं और महर्षियों का बनाने वाला ठहरा। 2।

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।

असम्मूढ़: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ 3 ॥

मनुष्यों में जो (बिरला ही) पूर्ण जानकार होता है वही मुझ अजन्मा, अनादि और सभी प्रपंच के बनाने-चलाने वाले को अच्छी तरह जानता है (और इसीलिए) सभी पापों से छुटकारा (भी) पाता है। 3।

बुद्धि र्ज्ञानम सम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम:।

सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥ 4 ॥

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश:।

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा : ॥ 5 ॥

विवेकशक्ति, विवेक, मोह का संसर्ग कतई न होना, क्षमा, सत्य, इंद्रियों पर काबू, मन पर काबू, सुख, दु:ख, पदार्थों का होना, न होना, भय, अभय, अहिंसा, सब में समबुद्धि या सबके साथ समानता का व्यवहार, संतोष, तप, दान, यश, अपयश (आदि) ये सभी विभिन्न पदार्थ मैं ही पैदा करता हूँ। 4। 5।

जिन बीस पदार्थों को प्रधानतया इन दो श्लोकों में गिनाया है उनका इस प्रसंग में इतना ही उपयोग है कि आत्मसाक्षात्कार या दिव्य-दृष्टि प्राप्त करने और तदनुकूल ही दूसरों को उपदेश करने के लिए ये जरूरी हैं। इनके बिना वह नजर और वह दृष्टि एक तो मिली नहीं सकती। मिलने पर भी दूसरों को इन्हीं के अनुकूल पथदर्शन में किसी की प्रवृत्ति होई नहीं सकती, जब तक ये गुण उसमें पूर्णरूप से आ न गए हों। जिसे सुख-दु:ख का कटु अनुभव न हुआ हो, जो क्षमाशील न हो, जिसने भय-अभय की खूबियाँ और कारनामे कभी देखे ही नहीं, वह क्या लोकसंग्रह करेगा? यही चीजें और ऐसी ही दूसरी भी उसे उस ओर जबर्दस्ती लगाती हैं, उसके दिल को पिघला देती हैं।

महर्षय: सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमा:प्रजा:॥ 6 ॥

सबसे पूर्व या सृष्टि के आरंभ के सात महर्षि और चार मनु - ये सभी - मुझी से मेरे मन के संकल्प से ही पैदा हुए थे, जिनने दुनिया में ये प्रजाएँ पैदा कीं - यह जनता पैदा की। 6।

इस श्लोक में जो 'पूर्वे' शब्द है वह 'महर्षय: सप्त' और 'चत्वारो मनव:' के बीच में आने के कारण दोनों ओर जुटता है। "लोभ: प्रवृत्तिरारंभ: कर्मणामशम: स्पृहा" (14। 12) में 'कर्मणां' का भी वही हाल है। वह 'आरंभ:' और 'अशम:' दोनों से ही जुटता है। इसी को देहलीदीपकन्याय कहते हैं। बीच द्वार में जो दीपक रहता है वह बाहर-भीतर दोनों ही तरफ उजाला करता है। वही बात यहाँ भी है। इस तरह इसका अर्थ यह हो जाता है कि पूर्व के, शुरू के या यों कहिए कि सृष्टि के आरंभ के सप्त महर्षि या सप्तर्षि और शुरू के ही चार मनु, ये ग्यारह भगवान के मानसपुत्र हैं, मन के संकल्प से ही उत्पन्न हुए लोग हैं। इसीलिए इन्हें भगवान के प्रतिनिधि मान के इनके द्वारा हुए सृष्टिविस्तार को भगवान का ही विस्तार, उसी की विभूति मानते हैं। 'मद्भावा:' शब्द का यही अर्थ है कि ये लोग मेरे ही स्वरूप हैं। अत: मेरी जगह पर ही काम करते हैं। आखिर समूची सृष्टि का विस्तार खुद भगवान अकेले तो कर सकते नहीं। इसीलिए उनने अपने सहायक पैदा किए। पैदा करना भी क्या था? उनने मन में खयाल किया और ये आ हाजिर हुए। मानसपुत्र का यही मतलब है।

असल में प्रत्येक कल्प या सृष्टि में चौदह मनु माने जाते हैं जिन्हें मन्वंतर भी कहते हैं। हरेक मनु के शासनकाल और काम के समय को ही अंतर या पहले और दूसरे के बीच का समय कहने के कारण हरेक को मन्वंतर कहा गया। यही है पौराणिक कल्पना। इसी के साथ यह भी बात है कि हरेक मनु या मन्वंतर के लिए भिन्न-भिन्न सप्तर्षि लोग पुराणों में गिनाए गए हैं। मगर गीता ने न तो चौदह मनुओं को ही माना है और न सब मिला के पूरे 98 महर्षियों या सप्तर्षियों को ही। गीता की रचना के समय तक इस कल्पना का यह विस्तार हो पाया न था, ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिए इसका नाम उसने न लिया। मालूम होता है तब तक केवल चार ही मनुओं और सात ही महर्षियों की कल्पना हो पाई थी। इसीलिए उसने इन्हीं दो को लिखा। यदि पीछे और भी हों तो गीता को उनसे मतलब भी क्या हो सकता है? सृष्टि के शुरू में उसका विस्तार कैसे हुआ यही बात बतानी है। क्योंकि जोई सुने वही समझदार पूछ सकता है कि अकेले भगवान ने भला यह सब कुछ कैसे बना डाला? इसलिए बनी-बनाई सभी चीजों और सभी पदार्थों के वर्णन के पहले ही कृष्ण ने ऐसा कह दिया जिससे किसी को शंका के लिए जगह रही नहीं जाती। ऐसी दशा में पीछे बने मनुओं या ऋषियों से गीता को प्रयोजन ही क्या? उनने सृष्टि के प्रारंभिक विस्तार में मदद तो दी न थी।

अब प्रश्न होता है कि ये कौन से चार मनु और सात महर्षि थे? क्योंकि गीता में तो उनका नाम है नहीं। इसलिए खामख्वाह जिज्ञासा होती ही है। खासकर चौदह मनुओं और 98 महर्षियों की बात इधर चालू हो जाने के कारण यह उत्कंठा और भी बढ़ जाती है कि आखिर ये सात ही ऋषि और चार ही मनु कौन से हैं।

इसके उत्तर में हमें गीताकालीन या उससे पूर्व प्रचलित साहित्य से ही सहायता मिल सकती है और वह साहित्य है ऋग्वेद आदि वैदिक ग्रंथों, निरुक्त और बृहदारण्यक आदि उपनिषदों का ही। शेष साहित्य तो पीछे का ही माना जाता है। अब यदि देखें तो बृहदारण्यक में गोतम या गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप और अत्रि इन सात का उल्लेख यों मिलता है, 'इमावेव गोतमभरद्वाजावयमेव गोतमोऽयं भरद्वाज इमावेव विश्वामित्र जमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरिमावेव वसिष्ठकश्यपावयमेवं वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रि:' (2। 2। 4)। इसी के पहले 'तस्यासत ऋषय: सप्ततीरे' यह मंत्र का प्रतीक लिख के उसी का व्याख्यान इस ब्राह्मण में किया गया है। क्योंकि उपनिषद् तो ब्राह्मण-ग्रंथ का ही एक भाग है। इससे स्पष्ट है कि उस मंत्र में भी इन्हीं सात महर्षियों का उल्लेख है। इसी प्रकार यदि वेदों के सूक्तों या उन मंत्र-समूहों को, जिनमें एक-एक विषय का प्रतिपादन है, देखें तो पता चलता है कि उनके कर्त्ता या ऋषि प्राय: यही सात महर्षि पाए जाते हैं क्योंकि हरेक मंत्र के ऋषियों को पहले से ही लोगों ने लिख रखा है।

इसी तरह जब मनुओं के संबंध में जाँच-पड़ताल करते हैं तो पता चलता है ऋग्वेद के आठवें मंडल के 51, 52 तथा दसवें के 62 सूक्तों में कई बार वैवस्वत, सावर्णि एवं सावर्ण्य नामक तीन मनुओं का उल्लेख पाया जाता है। दृष्टांत के लिए 51-52 सूक्त के पहले मंत्रों को देखें। वे यों हैं 'यथा मनौ सावरणौ सोममिन्द्रापिब: सुतम्। नीपातिथौ मघवन्मेधातिथौ पुष्टिगो श्रुष्टिगौ तथा', 'यथा मनौ विवस्वति सोमं शक्रापिब: सुतम्। यथात्रितेच्छन् इंद्र जुजोष स्यायौ मादयसे स च'। इसी तरह दसवें मंडल के 62वें सूक्त में सावर्णि तथा सावर्ण्य का उल्लेख है। इसका सावरणि और उसका सावर्णि ये दोनों एक ही हैं। इसी तरह निरुक्त के 'मनु: स्वायंभुवोऽब्रवीत्' (3। 1। 5) में स्वायंभुव मनु का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार वैवस्वत, सावर्णि, सावर्ण्य और स्वायंभुव यही चार मनु गीता में माने गए हैं। हमारे जानते यही प्रामाणिक और उचित बात भी है और गीता के इस श्लोक का यही अर्थ मुनासिब भी है।


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